वांछित मन्त्र चुनें

सं मा॑ तपन्त्य॒भित॑: स॒पत्नी॑रिव॒ पर्श॑वः। मूषो॒ न शि॒श्ना व्य॑दन्ति मा॒ध्य॑: स्तो॒तारं॑ ते शतक्रतो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sam mā tapanty abhitaḥ sapatnīr iva parśavaḥ | mūṣo na śiśnā vy adanti mādhyaḥ stotāraṁ te śatakrato vittam me asya rodasī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सम्। मा॒। त॒प॒न्ति॒। अ॒भितः॑ स॒पत्नीः॑ऽइव। पर्श॑वः। मूषः॑। न। शि॒श्ना। वि। अ॒द॒न्ति॒। मा॒। आ॒ऽध्यः॑। स्तो॒तार॑म्। ते॒। श॒त॒ऽक्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥ १.१०५.८

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:105» मन्त्र:8 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:21» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:8


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब न्यायाधीश के समीप वाद-विवाद करनेवाले वादी-प्रतिवादी जन अपने कुछ क्लेश का निवेदन करें और वह उनका न्याय यथावत् करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शतक्रतो) असंख्य उत्तम विचारयुक्त वा अनेकों उत्तम-उत्तम कर्म करनेवाले न्यायाधीश ! (ते) आपकी प्रजा वा सेना में रहने और (स्तोतारम्) धर्म का गानेवाला मैं हूँ (मा) उसको जो (पर्शवः) औरों को मारने और तीर के रहनेवाले मनुष्य आदि प्राणी (सपत्नीरिव) (अभितः, सम्, तपन्ति) जैसे एक पति को बहुत स्त्रियाँ दुःखी करती हैं, ऐसे दुःख देते हैं। जो (आध्यः) दूसरे के मन में व्यथा उत्पन्न करनेहारे (मूषः) मूषे जैसे (शिश्ना) अशुद्ध सूतों को (वि, अदन्ति) विदार-विदार अर्थात् काट-काट खाते हैं (न) वैसे (मा) मुझको संताप देते हैं, उन अन्याय करनेवाले जनों को तुम यथावत् शिक्षा करो। और शेष मन्त्रार्थ प्रथम मन्त्र के समान जानिये ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे न्याय करने के अध्यक्ष आदि मनुष्यो ! तुम जैसे सौतेली स्त्री अपने पति को कष्ट देती है वा जैसे अपने प्रयोजन मात्र वा बनाव-बिगाड़ देखनेवाले मूषे पराये पदार्थों का अच्छी प्रकार नाश करते हैं और जैसे व्यभिचारिणी वेश्या आदि कामिनीदामिनी स्त्री दमकती हुई कामीजन के लिङ्ग आदि रोगरूपी कुकर्म्म के द्वारा उसके धर्म्म, अर्थ, काम और मोक्ष के करने की रुकावट से उस कामीजन को पीड़ा देती हैं, वैसे ही जो डांकू, चोर, चवाई, अताई, लड़ाई, भिड़ाई, करनेवाले झूठ की प्रतीति और झूठे कामों की बातों में हम लोगों को क्लेश देते हैं उनको अच्छी (प्रकार) दण्ड देकर हम लोगों को तथा उनको भी निरन्तर पालो, ऐसे करने के विना राज्य का ऐश्वर्य्य नहीं बढ़ सकता ॥ ८ ॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ न्यायाधीशस्य समीपेऽर्थिप्रत्यर्थिनौ किंचित् क्लेशादिकं निवेदयेतां तयोर्यथावन्न्यायं स कुर्य्यादित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

हे शतक्रतो न्यायाधीश ते तव प्रजास्थं स्तोतारं मा मां ये पर्शवः सपत्नीरिवाभितः संतपन्ति य आध्यो मूषः शिश्ना व्यदन्ति न मा मामभितः संतपन्ति तानन्यायकारिणो जनांस्त्वं यथावच्छाधि। अन्यत्पूर्ववत् ॥ ८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सम्) (मा) मां प्रजास्थं वा पुरुषम् (तपन्ति) क्लेशयन्ति (अभितः) सर्वतः (सपत्नीरिव) यथाऽनेकाः पत्न्यः समानमेकपतिं दुःखयन्ति (पर्शवः) परानन्यान् शृणन्ति हिंसन्ति ते पर्शवः पार्श्वस्था मनुष्यादयः प्राणिनः। (मूषः) आखवः। अत्र जातिपक्षमाश्रित्यैकवचनम्। (न) इव (शिश्ना) अशुद्धानि सूत्राणि (वि) विविधार्थे (अदन्ति) विच्छिद्य भक्षयन्ति (मा) (आध्यः) परस्य मनसि शोकादिजनकाः (स्तोतारम्) धर्मस्य स्तावकम् (ते) तव (शतक्रतो) असंख्यातोत्तमप्रज्ञ बहूत्तमकर्मन्वा न्यायाध्यक्ष (वित्तं, मे, अस्य, रोदसी) इति पूर्ववत् ॥ ८ ॥।अत्राह निरुक्तकारः−मूषो मूषिका इत्यर्थो मूषिका पुनर्मुष्णातेर्मूषोऽप्येतस्मादेव। संतपन्ति मामभितः सपत्न्य इवेमाः पर्शवः कूपपर्शवो मूषिका इवास्नातानि सूत्राणि व्यदन्ति। स्वाङ्गाभिधानं वा स्याच्छिश्नानि व्यदन्तीति । संतपन्ति माध्यः कामा स्तोतारं ते शतक्रतो ! वित्तं मे अस्य रोदसी जानीतं मेऽस्य द्यावापृथिव्याविति। त्रितं कूपेऽवहितमेतत्सूक्तं प्रतिबभौ तत्र ब्रह्मेतिहासमिश्रमृङ्मिश्रं गाथामिश्रं भवति। त्रितस्तीर्णतमो मेधया बभूवापि वा। संख्यानामैवाभिप्रेतं स्यादेकतो द्वितस्त्रित इति त्रयो बभूवुः। निरु० ४। ५-६। ॥ ८ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। हे न्यायाध्यक्षादयो मनुष्या यूयं यथा सपत्न्यः स्वपतिमुद्वेजयन्ति, यथा वा स्वार्थसिद्ध्यसिद्धिका मूषिकाः परद्रव्याणि विनाशयन्ति, यथा च व्यभिचारिण्यो गणिकादयः स्त्रियः सौदामन्य इव प्रकाशवत्यः कामिनः शिश्नादिरोगद्वारा धर्मार्थकाममोक्षानुष्ठानप्रतिबन्धकत्वेन तं पीडयन्ति, तथा ये दस्य्वादयो मिथ्यानिश्चयकर्मवचनादस्मान् क्लेशयन्ति तान् संदण्ड्यैतानस्मांश्च सततं पालयत, नैवं विना सततं राज्यैश्वर्ययोगोऽधिको भवितुं शक्यः ॥ ८ ॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे न्यायाधीशांनो! जशा अनेक स्त्रिया असतील तर त्या पतीला त्रास देणाऱ्या असतात किंवा जसे आपल्या प्रयोजनासाठी उंदीर दुसऱ्याच्या पदार्थांचा नाश करतात व जसे व्यभिचारिणी वेश्यांमुळे कामीजनांना रोग होऊन ते त्रस्त होतात. तसे दुष्ट, चोर, निंदक, आळशी, भांडखोर लोक खोट्या कामाने आम्हाला त्रास देतात. त्यांना चांगल्या प्रकारे दंड देऊन आमचे व त्यांचे सतत पालन करा. असे केल्याशिवाय राज्याचे ऐश्वर्य वाढू शकत नाही. ॥ ८ ॥